Wednesday, December 29, 2010

चाहता है मन एक कविता आज फिर लिखू ,
वोः दिन ,वोः पल ,वोः बातें और तुम्हे लिखू ......
आज रात फिर से अकेले खिड़की से चाँद को देख्कर '
सामने आ गया तुम्हारा हँसता हुआ चेहरा
और एक बार फिर मनं मै कसक सी उठ चली कुछ लिखू ,

बैठा फिर एक कागज को खोलकर ,हांथो मै ली कलम
तुम्हारा नाम लिखा और फिर भूल गया अब क्या लिखू ??
उधर बहार खिड़की से चाँद धीरे धीरे चलकर
कहाँ से कहाँ पहुच गया ,और मैं तो बस तुम्हारे
नाम तक ही रुका रहा ,.........

ऐसा पहले तो नहीं होता था ,तुम्हे देखकर ,महसूस कर
झट से लिख देता था एक कविता ,और फिर तुम्हे पढ़कर
जीत लेता था तुम्हे दुनिया से ,वक़्त से और सबसे ......
लो फिर आ गया ये सर्द हवा का झौका और फिर निकल आया
मैं तुम्हारी चुभती यादो से ,फिर उसी कसक के साथ की कुछ लिखू ,

नया कागज ,फिर से कलम हाथ मै ,पर अब चाँद जा चूका था
खिड़की से ,मन बोझल हो चला ,पर एक मुस्कराहट होंठो पर आई
जैसे ये चाँद चला गया ,तुम भी तो चली गई हो ,फिर क्यों मैं
कुछ लिखू ,किसे लिखू ,और कैसे लिखू ,......

एक अकेली रात फिर से निकल गई ,मेरा कागज भी सूना रहा मेरे दिल की तरह,
आज भी कुछ न लिख सका ,एक कविता लिखने की आस फिर जाती रही ,
सुबह हो गई है ,अब लिखना भूल गया हूँ सोचकर फिर निकल पडा
अपने काम पर ,और साथ ही जाती रही तुम्हारी याद भी ,अब कभी नहीं लिखूंगा
कोई कविता 
.